कल तक जो थी पास हृदय के , आज भला क्यों दूर हुई।
यह हृदय सैलाब दर्द का , नित दिन यह बढ़ जाता,
जितना चाहुँ इसे घटाना , और अधिक है बढ़ जाता।
आना चाहुँ पास तुम्हारे पर , नदी पार ना कर पाता।
किसी दिवस में घुट जाऊंगा , इन दर्दों के घने धुंए में ,
किसी दिवस में गिर जाऊँगा , निज जीवन के सुष्म कुएँ में।
क्या गिरकर पुनः मिलेगा , जीवन को संतोष नया ,
उठा खड़ा है अंधेरे कुँए में, फिर छलके जो आँसु मोती धारा
सुना कुआँ भी भर जायेगा , चमक द्वारा , मोती द्वारा।
मयुर गेहलोत
(सॉफ्टवेयर इंजीनियर)
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